योगेश चंद्र पाण्डेय: आज आधुनिक भारत के अग्रगण्य निर्माताओं में से एक स्वतंत्रता सेनानी और स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की 61वीं पुण्यतिथि है। आज ही के दिन 1964 की दोपहर को पंडित नेहरू ने इस धराधाम से विदा ली थी। यह विडंबना ही है कि जीवन में अनेकानेक महान उपलब्धियों को हासिल करने वाले पंडित नेहरू अंतिम दिनों में चीन युद्ध में मिली हार से व्यथित थे, और संभवत: इसी दु:ख से उत्पन्न अवसाद उनकी मृत्यु का कारण भी बना। 1947 से 1964 तक भारत के प्रधानमंत्री रहे पंडित नेहरू केवल एक सफल राजनेता, कुशल प्रशासक और स्वाधीनता सेनानी ही नहीं थे बल्कि समकालीन विश्व के अग्रणी विद्वानों में भी गिने जाते थे। उनकी दूरदर्शी नीतियां आज भी विश्व समुदाय को शांति और सहअस्तित्व की राह दिखा रही हैं। बहरहाल, पंडित जी के बारे में लिखना तो मानो सूर्य को दिया दिखाने जैसा है। आज उनकी पुण्यतिथि पर उनके जीवन की कुछेक उन स्मृतियों को पलटने का लघुतम प्रयास मैं कर रहा हूं जो उत्तराखंड से जुड़ी हैं।
उत्तराखंड से उनका गहरा नाता रहा, जो उनके बचपन से शुरू हुआ और उनकी मृत्यु से एक दिन पहले तक बना रहा। उनके चिर निद्रा में लीन हो जाने से कुछ दिन पहले 23 से 26 मई 1964 तक के अंतिम चार दिन भी देहरादून में बीते थे। 26 मई 1964 को अंतिम बार दिल्ली प्रस्थान से पूर्व परिवार के सदस्यों के साथ देहरादून में सहस्रधारा भी गए और यहां गंधक के पानी में उन्होंने स्नान भी किया। देहरादून निवासी वरिष्ठ पत्रकार और लेखक राज कंवर अपनी स्मृतियां साझा करते हुए लिखते हैं ” मुझे आज भी वह (26 मई 1964 की) उमस भरी मंगलवार की शाम अच्छी तरह याद है, जब पंडित जवाहरलाल नेहरू हेलीकॉप्टर की सीढ़ियों की कुछ सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे, जो उन्हें और इंदिरा को देहरादून के सर्किट हाउस (अब राजभवन) के हरे-भरे वातावरण में चार दिनों के आराम और विश्राम के बाद वापस दिल्ली ले जाने वाला थी। मैं उस छोटे से समूह में था जिसमें नागरिक और सैन्य अधिकारी, कुछ कांग्रेसी और मुट्ठी भर पत्रकार शामिल थे, जो पंडित नेहरू को विदाई देने के लिए कैंटोनमेंट पोलो ग्राउंड पर हेलीपैड पर एकत्र हुए थे। नेहरू ने भीड़ की ओर देखा और एक हल्की मुस्कान दी। मेरा दिल धड़क उठा; मैंने नेहरू को कभी इतनी नीरस मुस्कान के साथ नहीं देखा था; वह अपने सामान्य रूप में नहीं दिख रहे थे।” इसके अगले दिन यानी 27 मई 1964 को पंडित नेहरू अनंत यात्रा पर रवाना हो गए।
पंडित नेहरू उत्तराखंड से आजन्म चलने वाला रिश्ता 8 या 9 वर्ष की आयु में शुरू हुआ था, जब वे वर्ष 1897 में अल्मोड़ा से पिंडारी ग्लेशियर तक के ट्रैक पर अपने पिता मोती लाल नेहरू के साथ गए थे। इसके बाद 1906 में वे 16 वर्ष की अवस्था में पहली बार मसूरी आए थे। मसूरी की खूबसूरती उनके मानस पटल पर कुछ इस तरह बैठ गईं कि उसके बाद से वे अक्सर यहां आते रहे। मसूरी का सेवाय होटल उनका पसंदीदा होटल माना जाता था।
पंडित नेहरू की राजनैतिक यात्रा में भी उत्तराखंड विशेषकर देहरादून की बड़ी भूमिका रही है। अपनी युवावस्था में उनके राजनीतिक गतिविधियों का एक पड़ाव यह शहर भी रहा है। असहयोग आंदोलन के दौर में सन् 1920 में देहरादून में आयोजित कांग्रेस के एक सम्मेलन अध्यक्षता पंडित नेहरू ने की थी। इस सम्मेलन में लाला लाजपत राय और सैफुद्दीन किचलू जैसे बड़े कांग्रेसी नेता भी शामिल हुए थे। इसके बाद सन् 1922 में भी देहरादून में एक राजनीतिक सम्मेलन की अध्यक्षता पंडित नेहरू ने की थी, इस सम्मेलन में उनके साथ सरदार बल्लभ भाई पटेल और चितरंजन दास जैसे कांग्रेस के बड़े नेता शामिल हुए थे।
1921 में उन्होंने उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र के प्रसिद्ध रामगढ़ की यात्रा की थी। इस यात्रा का उद्देश्य अपने पिता, पंडित मोतीलाल नेहरू से मिलने का था, जो उस समय वहां ठहरे हुए थे। नेहरू जी ने काठगोदाम से रामगढ़ तक का सफर घोड़े की सवारी से तय किया था।
राष्ट्रीय आंदोलन की ज्वाला उत्तराखंड के विभिन्न भागों में जोर शोर से जल रही थी। इस दौरान 5-6 मई 1938 को श्रीनगर गढ़वाल में कांग्रेस का एक विशेष राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन का आयोजन कराने में अग्रणी भूमिका श्रीदेव सुमन की थी। इस सम्मेलन में पंडित नेहरू भी शामिल हुए थे और अपने संबोधन में उन्होंने घोषणा की थी कि उत्तराखण्ड की विशेष भौगोलिक परिस्थिति के साथ ही अलग सांस्कृतिक पहचान है, इसलिये क्षेत्रवासियों को अपनी अलग पहचान बनाये रखने का हक है। उनका यह वक्तव्य पृथक उत्तराखंड राज्य के लिए हुए आंदोलन की नींव में शामिल है। वास्तव में एक पृथक हिमालयी राज्य की अवधारणा का पहला उद्घोष भी इस सम्मेलन को माना जा सकता है।
उत्तराखंड की खूबसूरत वादियों से नहीं यहां के कैदखानों से भी पंडित नेहरू का लंबा रिश्ता रहा है। यह जानना जरूरी है कि अंग्रेजों से लड़ते हुए पंडित नेहरू ने अपने जीवन के लगभग 3,259 दिन विभिन्न जेलों में अंग्रेजों के कैदी बनकर बिताए। इस तरह उन्होंने लगभग नौ साल देश के विभिन्न जेलों में रहे। इन लंबे कारावासों में उन्होंने देहरादून और अल्मोड़ा की जेलों की लंबी सजाएं भोगी हैं। वरिष्ठ पत्रकार जयसिंह रावत लिखते हैं-“उनको जब नवीं बार गिरफ्तार किया गया तो कुल 1041 दिन अल्मोड़ा जेल में रखा गया। देहरादून की पुरानी जेल के एक वार्ड में स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान पण्डित नेहरू को 4 बार कैद कर रखा गया था। राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान नेहरू को सबसे पहले 1932 में देहरादून जेल के इस वार्ड में रखा गया था। उसके बाद 1933,1934 और फिर 1941 में उन्हें यहां रखा गया था।”
अल्मोड़ा जेल में अभी भी वह वार्ड जहां पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सजा काटी थी। इस जेल में उनकी इस्तेमाल की गई दैनिक उपयोग की वस्तुएं उनकी चारपाई, कुर्सी, चरखा और खाने के बर्तन भी रखे हुए हैं। इस वार्ड को नेहरू वार्ड नाम दिया गया है। इसके अलावा जेल में जवाहरलाल नेहरू का पुस्तकालय भी मौजूद है, जहां उन्होंने अपनी आत्मकथा के कुछ अंश लिखे थे। इसी जेल से वे अंतिम बार 15 जून 1945 को रिहा हुए थे।
स्वतंत्रता के पश्चात पंडित नेहरू देश के प्रधानमंत्री बने और देश का पुनर्निर्माण आरंभ हुआ, देश में बड़े-बड़े बांध, आईआईटी, आईआईएम समेत विशाल संस्थानों की नींव रखी जाने लगी। इस पुनर्निर्माण की नींव रखने भी पंडित नेहरू उत्तराखंड आए थे। 23 मई 1949 को डाकपत्थर बैराज की आधारशिला उन्होंने ही रखी थी। यह बैराज यमुना नदी पर बना है और इसका मुख्य उद्देश्य पनबिजली उत्पादन और सिंचाई के लिए जल प्रवाह को नियंत्रित करना है।
स्वतंत्रता के बाद जब 1952 में देश में पहले आम चुनाव हुए तो प्रचार करने के लिए भी नेहरू जी रानीखेत पहुंचे थे। पार्टी प्रत्याशी के पक्ष में उनकी जनसभा भिकियासैंण में आयोजित की गई। तब रानीखेत विधानसभा क्षेत्र दो सीटों में विभक्त था-रानीखेत पूर्वी और रानीखेत दक्षिणी। रानीखेत पूर्वी क्षेत्र में सोशलिस्ट पार्टी से कद्दावर नेता पूर्व मंत्री स्व. गोविंद सिंह माहरा और कांग्रेस से स्व. हरगोविंद पंत प्रत्याशी थे। जबकि रानीखेत दक्षिणी से स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व. मदन मोहन उपाध्याय और कांग्रेस से स्व. हरिदत्त कांडपाल मैदान में थे। इस चुनाव में रानीखेत पूर्वी से हरगोविंद पंत और रानीखेत दक्षिणी से मदन मोहन उपाध्याय चुनाव जीते थे।
पंडित नेहरू को उत्तराखंड की संस्कृति और विरासत से भी गहरा लगाव था, कोटद्वार स्थित कण्वाश्रम की खोज में भी उनकी भूमिका रही है। वर्ष 1955 में रूस यात्रा की थी। उस दौरान रूसी कलाकारों ने महाकवि कालिदास रचित ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ की नृत्य नाटिका प्रस्तुत की। एक रूसी दर्शक ने पं. नेहरू से कण्वाश्रम के बारे में जानना चाहा, लेकिन उन्हें इसके बारे में जानकारी न थी। वापस लौटते ही उन्होंने ने तत्कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद को कण्वाश्रम की खोज का दायित्व सौंप दिया। इसके बाद खोज का कार्य आरंभ हुआ और 1956 में तत्कालीन वन मंत्री जगमोहन सिंह नेगी कोटद्वार पहुंचे व कण्वाश्रम (चौकीघाटा) के निकट एक स्मारक का शिलान्यास किया, जो आज भी मौजूद है।
पंडित नेहरू अब नहीं हैं लेकिन उनकी स्मृतियां सदैव रहेंगी, वे भारत के इतिहास का अभिन्न हिस्सा हैं। उनकी पुण्यतिथि पर देश के पूर्व प्रधानमंत्री पंडित अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों की स्मृति आज भी प्रासंगित है जो उन्होंने संसद में 29 मई 1964 को उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कही थीं ” एक सपना था जो अधूरा रह गया, एक गीत था जो गूंगा हो गया, एक लौ थी जो अनंत में विलीन हो गई। सपना था एक ऐसे संसार का जो भय और भूख से रहित होगा, गीत था एक ऐसे महाकाव्य का जिसमें गीता की गूंज और गुलाब की गंध थी। लौ थी एक ऐसे दीपक की जो रात भर जलता रहा, हर अंधेरे से लड़ता रहा और हमें रास्ता दिखाकर, एक प्रभात में निर्वाण को प्राप्त हो गया।…”
